मनुष्य के ऊपर तीन प्रकार के ऋण होते हैं। देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण
मनुष्य जन्म लेता है तो उसकी मृत्यु तक कई तरह के ऋण, पाप, पुण्य उसका पीछा करते रहते हैं। हिन्दू शास्त्रों में कहा गया है कि तीन तरह केऋण को चुकता कर देने से मनुष्य को बहुत से पापों और संकटों से छुटकारा मिल जाता है।
पुर्वजों की सुख-सुविधा एवं प्रगति प्रसन्नता के निमित्त जो लोकोपयोगी परंपराओं के साथ जुड़े हुये कार्य किये जाते हैं वे पितृऋण से मुक्ति दिलाते हैं। और जिवंत माता पिता की सेवा करे
शिक्षा और विद्या का प्रसार विस्तार ऋषिऋण से मुक्ति प्राप्त करना है। हर शिक्षित का कर्तव्य है कि वह अपना समय निजी कार्यों में से बचाकर बच्चो एवं जरूरियात मंद के साथ ज्ञान बाटने का प्रयत्न करे और वो ज्ञान निस्वार्थ होना चाहिए (ज्ञान का अहंकार होने सबसे बड़ा अज्ञान हे )। अपनी चेष्टाओं को विद्यालय और पुस्तकालय के संयुक्त रूप में विकसित करें और उस संगम का लाभ अधिकाधिक लोगों को देने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहें। ऋषिऋण से- गुरुऋण से मुक्ति इसी प्रकार हो सकती है। जो सर्वथा अशिक्षित हैं वे भी विद्या विकास के लिए अपने साधनों को जोड़ते हुये उस उत्कृष्ट के निमित्त जो कुछ कर सकते हैं उसमें कमी न रहने दें। विद्यादान के निमित्त धनदान करने से भी यह प्रयोजन पूरा हो सकता है।तीसरा ऋण है- देवऋण। मनुष्य के भीतर दैत्य भी रहता है और देव भी। दैत्य पतन-पराभव के लिए आकर्षित करता है। कुबुद्धि उत्पन्न करना, कुमार्ग पर चलने के लिए फुसलाता है। देव की प्रकृति इससे उलटी है। वह निरंतर यह प्रेरणा देता है कि मनुष्य आगे बढ़े ऊँचा उठे। दुष्प्रवृत्तियों से लड़े और सत्प्रवृत्तियों को बलिष्ठ बनाये सत्प्रवृत्तियों की दिशा में कदम बढ़ाये। पाप से जूझे और पुण्य को पोषे। ईश्वर के सम्मुख हमें उसका दूसरा ऋण चुकाने के लिये उपस्थित होना चाहिए और प्रार्थना करना चाहिए कि हे परमात्मन्! आपने मेरी आत्मा में अमूल्य खजाना भर देने की कृपा की है, मैं आपके प्रयत्न को व्यर्थ न करूंगा, इस खजाने को खोलूँगा और काम में लाऊँगा।मुझे विश्व का प्रेम प्राप्त होता हैं, मैं विश्व के कण कण से प्रेम करूंगा। मैं प्राप्त करता हूँ, इसके बदले में दूँगा। देना मेरा धर्म होगा ‘त्याग‘ को मेरे जीवन क्रम में प्रमुख स्थान रहेगा।
इन तीन ऋणों को उतारना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। यह जीवन और अगला जीवन सुधारना हो तो इन ऋणों के महत्व को समझना जरूरी है।
सत्य, प्रेम और न्याय की भावनाओं को हृदयंगम करने और उसके अनुसार आचरण में प्रवृत्त होने पर हम देव ऋण ऋषि ऋण और पितृ ऋण से छुटकारा पाते हैं और जीवन मुक्त होकर परम पद पाने के लिए स्वतन्त्र हो जाते हैं।
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