स्वयं विचार कीजिए!
समय के आरंभ से ही एक प्रश्न मनुष्य को सदैव पीडा(दु:ख)देता है
कि वो अपने संबंधो में अधिक से अधिक सुख और
कम से कम दुख किस प्रकार प्राप्त कर सकता है?
क्या आपके सारे संबंधो ने आपको संपूर्ण संतोष दिया है?
हमारा जीवन संबंधो पर आधारित है और
हमारी सुरक्षा संबंधो पर आधारित है।
इसी कारण हमारे सारे सुखो का कारण भी संबंध ही हैं।
किन्तु फिर भी हमें संबंधो में दुख क्योँ प्राप्त होते हैं?
सदा ही संघर्ष भी संबंधो से क्योँ उत्पन्न हो जाते हैं?
जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के विचारों
को स्वीकार नहीं करता अथवा उसके कार्यो को स्वीकार नहीं करता
उसमे परिवर्तन करने का प्रयत्न करता है तो संघर्ष जन्म लेता है।
अर्थात जितना अधिक अस्वीकार उतना ही अधिक संघर्ष और
जितना ही अधिक स्वीकार उतना ही अधिक सुख।
क्या यह वास्तविकता नहीं ?
यदि मनुष्य स्वंय अपनी अपेकक्षाओं पर अंकुश रखे
और अपने विचारो को परखे।
किसी अन्य व्यक्ति मे परिवर्तन करने का प्रयत्न न करे।
स्वंय अपने भीतर परिवर्तन करने का प्रयास करे।
तो क्या संबंधो में संतोष प्राप्त करना इतना कठिन है?
अर्थात क्या स्वीकार ही संबंधो का वास्तविक आधार नहीं ?
स्वयं विचार कीजिए!
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