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बुधवार, 8 नवंबर 2017

Saraswati Chalisa | देवी सरस्वती चालीसा

यदि आप सम्पूर्ण देवी सरस्वती चालीसा हिंदी में (Saraswati Chalisa) पढ़ना चाहते है तो आप यहाँ पढ़ सकते हैं | लक्ष्मी चालीसा को शांत मन के साथ, अपने आप को देवी सरस्वती के चरणों में समर्पित करते हुए पढ़ने से निश्चित ही धन धान्य, कीर्ति में बढ़ोतरी होती है

श्री सरस्वती देवी चालीसा

Saraswati Chalisa

॥ दोहा ॥

जनक जननि पदम दुरज, निज मस्तक पर धारि ।
बन्दौं मातु सरस्वति, बुद्धि बल दे दातारि ॥
पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु ।
रामसागर के पाप को, मातु तुही अब हन्तु ॥

॥चौपाई॥
जय श्रीसकल बुद्धि बलरासी, जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी ।
जय जय जय वीणाकर धारी, करती सदा सुहंस सवारी ।

रूप चतुर्भुज धारी माता, सकल विश्व अन्दर विख्याता ।
जग में पाप बुद्धि जब होती, तबही धर्म की फीकी ज्योति ।

तबहि मातु का निज अवतारा, पापहीन करती महि तारा ।
बाल्मीकिजी जो थे ज्ञानी, तव प्रसाद महिमा जन जानी ।

रामायण जो रचे बनाई, आदि कवि पदवी को पाई ।
कालिदास जो भये विख्याता, तेरी कृपा दृष्टि से माता ।

तुलसी सूर आदि विद्वाना, भये और जो ज्ञानी नाना ।
तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा, केवल कृपा आपकी अम्बा ।

करहु कृपा सोई मातु भवानी, दुखिन दीन निज दासहि जानी ।
पुत्र करई अपराध बहूता, तेहि न धरइ चित सुन्दर माता ।

राखु लाज जननि अब मेरी, विनय करुँ भाँति बहुतेरी ।
मैं अनाथ तेरी अवलंबा, कृपा करऊ जय जय जगदंबा ।

मधु कैटभ जो अति बलवाना, बाहुयुद्ध विष्णु से ठाना ।
समर हजार पांच में घोरा, फिर भी मुख अनसे नहीं मोरा ।

मातु सहाय कीन्ह तेहि काला, बुद्धि विपरीत भई खलहाला ।
तेहि ते मृत्यु भई खल केरी, पुरवहु मातु मनोरथ मेरी ।

चण्ड मुण्ड जो थे विख्याता, छण महु संहारेउ तेहि माता ।
रक्तबीज से समरथ पापी, सुरमुनि हृदय धरा सब काँपी ।

काटेउ सिर जिम कदली खम्बा, बार बार बिनऊँ जगदंबा ।
जगप्रसिद्ध जो शुंभ निशुंभा, छण में वधे ताहि तू अम्बा ।

भरत_मातु बुद्धि फेरेऊ जाई, रामचन्द्र बनवास कराई ।
एहिविधि रावन वध तू कीन्हा, सुर नर मुनि सबको सुख दीन्हा ।

को समरथ तव यश गुन गाना, निगम अनादि अनंत बखाना ।
विष्णु रुद्र अज सकहिं न मारी, जिनकी हो तुम रक्षाकारी ।

रक्त दन्तिका और शताक्षी, नाम अपार है दानव भक्षी ।
दुर्गम काज धरा पर कीन्हा, दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा ।

दुर्ग आदि हरनी तू माता, कृपा करहु जब जब सुखदाता ।
नृप कोपित को मारन चाहै, कानन मैं घेरे मृग नाहै ।

सागर मध्य पोत के भंजे, अति तूफान नहिं कोऊ संगे ।
भूत प्रेत बाधा या दुःख में, हो दरिद्र अथवा संकट में ।

नाम जपे मंगल सब होई, संशय इसमें करइ न कोई ।
पुत्रहीन जो अतुर भाई, सबै छाँडि पूजें एहि माई ।

करै पाठ नित यह चालीसा, होय पुत्र सुन्दर गुण ईशा ।
धूपादिक नैवेद्य चढ़ावै, संकट रहित अवश्य हो जावै ।

भक्ति मातु की करैं हमेशा, निकट न आवै ताहि क्लेशा ।
बंदी पाठ करें सत बारा, बंदी पाश दूर हो सारा ।
'रामसागर' बाधि हेतु भवानी, कीजै कृपा दास निज जानी ।

॥दोहा॥
मातु सूर्य कान्ति तव, अन्धकार मम रूप ।
डूबन से रक्षा करहु, परूँ न मैं भव कूप ॥
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, सुनहु सरस्वती मातु ।
'राम सागर' अधम को आश्रय तू ही ददातु ॥


निष्कर्ष :

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